तिब्बत का मुद्दा दशकों से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा और विवाद का विषय बना हुआ है। ऐतिहासिक रूप से तिब्बत एक स्वतंत्र राष्ट्र था, लेकिन 1950 में चीन ने इसे अपने नियंत्रण में ले लिया। 1959 में तिब्बती जनता ने चीन के खिलाफ एक बड़ा विद्रोह किया, जिसे चीनी सेना ने बर्बरता से कुचल दिया। इस दौरान हजारों तिब्बतियों को अपनी जान गंवानी पड़ी और लाखों को विस्थापित होना पड़ा। इस क्रूर दमन के बाद, तिब्बत के धर्मगुरु दलाई लामा को भारत में शरण लेनी पड़ी, और उन्होंने धर्मशाला में तिब्बती शरणार्थियों की सरकार-इन-एक्साइल (निर्वासित सरकार) की स्थापना की।
तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद से वहां मानवाधिकारों का हनन, धार्मिक स्वतंत्रता पर प्रतिबंध और सांस्कृतिक दमन लगातार जारी है। तिब्बती बौद्ध मठों पर निगरानी रखी जाती है, धार्मिक नेताओं को चीनी सरकार के प्रति वफादारी की शपथ दिलाई जाती है, और किसी भी तरह के अलगाववादी विचारों को सख्ती से दबा दिया जाता है। तिब्बती भाषा, परंपराओं और संस्कृति को मिटाने के लिए चीनी सरकार द्वारा कई प्रयास किए जा रहे हैं।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तिब्बत का मुद्दा लंबे समय से विवादित रहा है। अमेरिका, यूरोप और भारत में कई मानवाधिकार संगठन तिब्बत की आज़ादी के लिए आवाज़ उठाते रहे हैं, लेकिन चीन की आर्थिक और राजनीतिक ताकत के कारण कोई भी देश इसे सीधे चुनौती नहीं देता। हालांकि, दलाई लामा और उनके अनुयायी तिब्बत की पूर्ण स्वतंत्रता के बजाय “वास्तविक स्वायत्तता” की मांग कर रहे हैं, जिसमें तिब्बत को चीन के अंदर एक स्वायत्त क्षेत्र के रूप में धार्मिक, सांस्कृतिक और प्रशासनिक स्वतंत्रता दी जाए। लेकिन चीन सरकार इस मांग को भी स्वीकार करने को तैयार नहीं है।
आज तिब्बती समुदाय विश्वभर में अपनी पहचान बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रहा है। भारत, नेपाल, अमेरिका और यूरोप के विभिन्न देशों में लाखों तिब्बती शरणार्थी बसे हुए हैं, लेकिन वे अब भी अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता का सपना देख रहे हैं। हर साल 10 मार्च को तिब्बती विद्रोह दिवस मनाया जाता है, जब तिब्बती लोग चीन के दमन के खिलाफ प्रदर्शन करते हैं और अपनी स्वतंत्रता की मांग को दोहराते हैं।
चीन के प्रभाव और शक्ति के कारण तिब्बत के मुद्दे को दबाने की कोशिश की जाती है, लेकिन यह एक ऐसा संघर्ष है जो तिब्बतियों की अगली पीढ़ियों तक जारी रह सकता है। दलाई लामा के शांतिपूर्ण समाधान के प्रयासों के बावजूद, तिब्बती स्वतंत्रता की राह अभी भी मुश्किल और अनिश्चित बनी हुई है।