संवेदनाओं का सौदा: जब रेप का राजनीतिकरण होता है

रेप जैसी घिनौनी घटनाओं का राजनीतिकरण होना हमारी सभ्यता के पतन का सबसे बड़ा प्रमाण है। एक जागरूक नागरिक के रूप में इस स्थिति पर विचार करना बेहद आवश्यक हो जाता है। यह स्थिति न केवल हमारी समाज की कमजोरियों को उजागर करती है, बल्कि हमें यह भी सोचने पर मजबूर करती है कि आखिर हम किस दिशा में जा रहे हैं?

राजनीतिक लाभ के लिए संवेदनाओं का इस्तेमाल

हमारे देश में जब भी किसी प्रदेश में कोई वीभत्स घटना घटती है, तो राजनीतिक दल उस घटना को अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करने में जुट जाते हैं। यह देखा जाता है कि जहां उनका हित होता है, वहां वे संवेदनाओं का बवंडर खड़ा कर देते हैं, और जहां उनके लिए यह मुद्दा फायदेमंद नहीं होता, वहां वे मौन साध लेते हैं। मणिपुर और बंगाल की घटनाओं के प्रति यह दोगला रवैया हमें सोचने पर मजबूर करता है कि क्या राजनीति ने हमारी मानवता को निगल लिया है?

समाज की मूक स्वीकृति

जसदण के आटकोट या देश के अन्य हिस्सों में हर 15 मिनट में होने वाली घटनाओं पर समाज की चुप्पी यह दर्शाती है कि हमने इन घटनाओं को एक सामान्य घटना के रूप में स्वीकार कर लिया है। बलात्कार के बाद यदि लड़की जीवित बच जाती है, तो उसे ही दोषी ठहराने का चलन हमारे समाज की एक और कड़वी सच्चाई है। और अगर वह लड़की मर जाती है, तो उसकी मौत को राजनीतिक मंच पर इस्तेमाल कर लिया जाता है। यह चुप्पी और यह रवैया एक जागरूक नागरिक को सोचने पर मजबूर करता है कि क्या यह समाज वास्तव में अपने मूल्यों को खो चुका है?

नैतिकता का ह्रास

एक जागरूक नागरिक यह समझता है कि OTT प्लेटफॉर्म्स पर अश्लीलता का खुला प्रसार और इंटरनेट पर बिना रोक-टोक के पोर्नोग्राफी का आसानी से उपलब्ध होना हमारे समाज की नैतिकता को गंभीर रूप से नुकसान पहुंचा रहा है। आज के बच्चे और युवा ऐसे कंटेंट को देखकर बड़े हो रहे हैं, जो उनकी सोच और मानसिकता को विकृत कर रहे हैं। जब एक मासूम बच्चा ऐसे कंटेंट से प्रभावित होकर अपराध करता है, तो हम किसे दोषी ठहराएं? हमारी व्यवस्था को, हमारे समाज को या खुद को?

राजनैतिक ढोंग और जनतंत्र

समाज का पुनरुत्थान: हमारा कर्तव्य

एक जागरूक नागरिक का यह दायित्व बनता है कि वह इन मुद्दों पर न केवल सोच-समझकर कदम उठाए, बल्कि अपने आस-पास के लोगों को भी इस मुद्दे के प्रति जागरूक करे। हमें इस मुद्दे पर विचार करना होगा कि क्या हम सिर्फ एक मौन दर्शक बने रहेंगे, या इस राजनीति के खिलाफ आवाज़ उठाएंगे? हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम समाज को इस नैतिक पतन से बचाएं और अपनी बेटियों को ऐसा सुरक्षित माहौल दें, जिसमें वे निर्भया या अन्य किसी उपनाम की आवश्यकता महसूस न करें। एक सशक्त समाज का निर्माण तभी संभव है, जब हम इस राजनीति के चक्रव्यूह से बाहर निकलकर अपने मूल्यों और संवेदनाओं की रक्षा करें।

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